© Jaun Elia उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या मेरी हर बात बे-असर ही रही नक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं यही होता है ख़ानदान में क्या अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं हम ग़रीबों की आन-बान में क्या ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से आ गया था मेरे गुमान में क्या शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या ऐ मेरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ तू नहाती है अब भी बान में क्या बोल...